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उसदिन सुबह ही मुल्ला नसीरूद्दीन का विवाह हुआ था। उसी रात वह अपनी पत्नी व संबंधियों के साथ नदी पार करने के लिए नाव में बैठ गया।

अचानक तेज तूफान आया नाव तेजी से डगमगाने लगी। नाव में नई दुल्हन व सभी रिश्तेदार घबरा गए परन्तु मुल्ला शांत रहे। पत्नी ने हैरानी से पूछा – ‘‘क्या आपको डर नहीं लग रहा ?’’

मुल्ला ने कोई जवाब दिए बिना अपनी जेब से खंजर निकाला और पत्नी के गले पर रख दिया मानों वह उसकी गर्दन काटने वाला हो। पत्नी के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। मुल्ला ने पूछा – ‘‘क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा ?’’

पत्नी ने कहा -‘‘खंजर तो खतरनाक है पर मेरे प्यारे पति के हाथ में है इसलिए मुझे डर नहीं लग रहा।’’

मुल्ला ने कहा – ‘‘यह लहरें भी खतरनाक है पर इन्हें चलाने वाला मेरा प्यारा अल्लाह है इसलिए मुझे भी डर नहीं लग रहा।’’

ऐसा ही यदि हम सब इंसान अपने बनाने वाले ईश्वर या अल्लाह या गॉड पर भरोसा करलें तो हम सुकून की झील में तैरने लगे, हम स्वस्थ हो जाए, हम निरोगी होने का पासपोर्ट पा लें, हमारे जीवन से रोग, निराशा, कुंठा, चिंता हमेशा के लिए चली जाए और हमें परम आनंद प्राप्त हो जाए…यही तो हमारे जीवन और जीवन के हर कार्य का मूल है।

“आस्था ही हमें स्वस्थ करती है।” आस्था के सिवाय कोई दूसरी चीज है ही नही जो हमें आरोग्य प्रदान करे। मैं यह बात पूरी तरह से वैज्ञानिक और चिकित्सकिय द्रष्टिकोण से कह रहा हूँ। हां, यह आस्था ईश्वर पर हो सकती है, दवाई पर हो सकती है, चिकित्सक पर हो सकती है या स्वयं पर हो सकती है। अगर यह असत्य होता तो ऐसा कभी न होता कि एक ही दवाई का असर अलग अलग चिकित्सक द्वारा देने पर अलग अलग असर दिखाती। हमने कई लोगों से कहते सुना है कि मुझे तो उस डॉक्टर के अलावा किसी और चिकित्सक की दवाई असर ही नहीं करती। जैसे जैसे लोगों की आस्था किसी चिकित्सक में बढ़ती जाती है वह चिकित्सक प्रसिद्ध होता चला जाता है और लोगों को वह और अधिक आरोग्य प्रदान करता जाता है।

आस्था ईश्वर पर होना ही आस्था का सही मूल्य है। आस्था हर किसी पर रखना आस्था का अपमान है, यह तो सर्व शक्तिमान को ही शोभित होती है किसी तुच्छ के लिए नहीं। ईश्वर पर विश्वास करना और उसे अपनी हर समस्या का निराकरण करने वाला मानना ही आस्था है। जब हम उससे प्रार्थना या दुआ करते हैं तो वह सभी दुआ को क़ुबूल करके उसे पूर्ण कर देता है क्योंकि ईश्वर के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है। विश्वास करना किसी चीज को सच मानना या उसे स्वीकार करना है। यह एक शानदार आचरण है हमारे अवचेतन मन का कि हमारा चेतन और तार्किक मन जिसे भी सच मानता है यह भी उसे सच मानना शुरू कर देता है। हमें बस हमारे अवचेतन मन को यह प्रशिक्षण देना पड़ता है कि ईश्वर असीम शक्ति के साथ हमारे साथ सदैव उपस्थित है। महान इमर्सन का कथन यहाँ विचारणीय है- “प्रार्थना सर्वोच्च द्रष्टिकोण से जीवन का मनन है।”

आपका विश्वास कमज़ोर है तो वह आपकी प्रार्थना या दुआ का फलदायक नहीं होने देगा। दुआ का फल तब मिलता है जब हमारा विश्वास पहाड़ की तरह अटल और तठस्थ हो। जीवन का नियम विश्वास और आस्था का नियम है और यह विश्वास आपके मन का एक विचार है। जैसा हम सोचते, समझते, महसूस करते और विश्वास करते हैं, हमारा मन, शरीर और परिस्थितियां भी ठीक वैसी ही हो जाती हैं। यही वजह है कि प्रार्थना हमारे मन की परिस्थितियों को बदल देती हैं। प्रार्थना में असंभव जैसा कुछ भी नहीं होता क्योंकि प्रार्थना ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानती है।

पुनःश्च- हाल ही में सोशल साइकोलॉजी एंड पर्सनालिटी साइंस के जर्नल में प्रकाशित एक शोध में बताया गया है कि धार्मिक लोग नास्तिक की तुलना में 5.5 से 9.5 वर्ष अधिक जीते हैं। यह रिसर्च कूल 1096 लोगों पर अमेरिका में की गई थी। धार्मिक व्यक्ति कई तरह के व्यसन, बुरे काम से तो बचा ही रहता है लेकिन सबसे बड़ा लाभ उसे होता है चिंता या तनाव का जीवन में अभाव। धर्म मानसिक शांति देने के मामले में सर्वोच्च स्थान पर है। धर्म हमें निराशा से बचाकर आशावादी बनाता है और यह सबसे पहली शर्त है किसी भी रोग से मुक्ति पाने की।


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मानव सभ्यता के शुरुआती दौर से ही चलना एक अनिवार्य काम था। चलना , दौड़ना, पीछा करना या जान बचाकर भागना…यह सब पाषाण युग से लेकर कृषि युग तक चलते रहे। औद्योगिक क्रांति और फिर संचार क्रांति ने सबकुछ पलट दिया। दुनिया 360° घूम गई या पूरी तरह से बदल गई। हम सबने न चलने और कम से कम मेहनत करने को अपनी सफलता का पैमाना बना लिया। कुर्सियों की दौड़ शुरू हुई और घरों में सोफा संस्कृति विकसित हो गई। इन सबने हमारे शरीर को आलसी बनाया और दुर्भाग्य से वह बीमार होता चला गया। हम विश्व इतिहास की सबसे कम चलने वाली पीढ़ी हैं और हमारी आने वाली पीढियां पता नहीं हमसे और कितना कम चलेगी।

हम मनुष्यों के लिए चलना एक बेहतरीन इलाज है। मैं केवल चक्कर के रोगियों को छोड़कर सभी को चलने की सलाह देता हूँ और उन्हें समझाकर चलने के लिए मना लेता हूँ। मेरी सलाह मानकर वे चलना शुरू करते हैं और फिर अपनी सेहत में एक सुखद और आश्चर्यजनक बदलाव वे महसूस करते हैं। सेहत को लेकर हर संस्कृति और हर धर्म बहुत सजग रहे हैं और चलने का सभी ने बहुत गुणगान किया है। पैगम्बरों और महापुरुषों ने भी चलकर खुद को स्वस्थ रखने का उपदेश अपने अनुयायियों को दिया है।

जब हम चलते हैं तो हमारे रक्त का प्रवाह बढ़ता है, कोशिकाओं में गति होने लगती हैं, वे प्रसन्न हो जाती हैं, उल्लास मनाते हुए निरोगी हो जाती हैं। हमारी मांसपेशियों में गति होती हैं, वे लचीली बन जाती हैं, उनमें रक्त प्रवाह बढ़ता है जो कि विषैले पदार्थों को उनमें से निकालकर ले जाता है। जोड़ स्वस्थ होते हैं। आनंद देने वाले रसायन सैरेटोनिन का स्राव बढ़ता है जिससे हम खुश रहने लगते हैं, हमारा तनाव दूर होता है, हम अवसाद से मुक्त होने लगते हैं। चलने या वर्कआउट करने से आंतों में गति (पेरिस्टालसिस मूवमेंट) होने लगती है जिससे हम कब्ज़, अपच, एसिडिटी जैसी समस्याओं से मुक्त होने लगते हैं। चलने से हम थकते हैं, और थकान नींद के लिए सबसे प्रभावी दवाई है इसलिए अनिंद्रा की समस्या भी इससे दूर होती है। जर्नल ऑफ क्लीनिकल स्लीप मेडिसिन में एक शोध प्रकाशित हुआ था जिसमें बताया गया था कि रोज़ाना वर्कऑउट करने या चलने वाले अनिद्रा के रोगियों में अनिद्रा की समस्या में 55% कमी हो जाती है।

चलने से कैलोरी बर्न होती है और हमारा अतिरिक्त वज़न कम होने लगता है। चलना मोटापे से युद्ध के खिलाफ एक प्रभावी शस्त्र है। पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च कहती है कि जो महिलाएं केवल 40 मिनट रोज़ाना वर्कऑउट करती हैं तो वे साल भर में अपने वज़न का 10% कम कर लेती हैं। अगर आप 70 किलों की हैं तो एक साल में केवल 40 मिनट मेहनत करने से आप 63 किलो की हो जाएंगी।

चलने से दिमाग, किडनी और दिल स्वस्थ रहता है, हमारी नसों में बन चुके ब्लॉक हटते हैं, पथरी घुलती है। रोज़ाना चलने वालों में हृदय रोग का खतरा 27%, ब्रेन स्ट्रोक का खतरा 30% और अल्ज़ाइमर का खतरा 32% तक कम हो जाता है। रोज़ाना थोड़ी देर चलने या चहल कदमी करने से कैंसर की संभावना भी काफी कम हो जाती है, जैसे- कोलन कैंसर 53% तक कम, प्रोस्टेट कैंसर 35% तक कम, गर्भाशय कैंसर 23%तक कम और अन्य कैंसर होने का खतरा भी 52% तक कम हो जाता है।

पूरे विश्व की लगभग 90% आबादी व्यायाम नहीं करती। मजदूरों को छोड़ दिया जाए तो हम सभी इंसान बहुत घातक आराम का जीवन जी रहे हैं। हम चिकित्सकों के पास लगी हुई लाइन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आधी हो जाए अगर लोग सिर्फ आधा घंटा रोज़ चलना शुरू कर दें तो। मैं अपने रोगियों से पूछता हूँ कि आप आखिरी बार 3 से 4 किलोमीटर कब चले या दौड़े थे तो अधिकांश सोचते ही रहते हैं लेकिन उन्हें याद नहीं आता कि उन्होंने यह सामान्य सा काम कब किया था। फिर मैं जवाब देता हूँ कि अगर आप यह काम रोज़ाना करते तो शायद आपको मेरी और मेरे द्वारा लिखी दवाईयों की ज़रूरत ही न पड़ती।

आपको चलने और काम करने के इतने फायदे देखकर लग रहा होगा कि आप भी आज से ही जिम जॉइन कर लेंगे या फिर कल से मॉर्निंग वॉक पर जाने लगेंगे लेकिन यह रूटीन या जिम जाना विश्व के 90% लोग छः महीने में ही छोड़कर उसी पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। तो आप क्या करें? मेरी राय है कि आप मेरी कुछ सलाह मानले ताकि आप जीवनभर चलना और मेहनत करना जारी रख सकते हैं, क्योंकि हमें स्वस्थ तो जीवनभर रहना है ना।

● चलने को अपने आदत बना लें या इसे अपनी मजबूरी बना लें। जैसे कार को ऑफिस से 1 किलोमीटर दूर पार्क करें, घर के सामान जैसे ग्रॉसरी, दूध, सब्ज़ियां लेने पैदल ही जाएं।

● लिफ्ट की जगह सीढ़ियों का इस्तेमाल करें।

● रोज़ाना पैदल चलने का लक्ष्य बनाए जैसे 10000 कदम या 3 किलोमीटर। हां, यह लक्ष्य आप 24 घण्टे में कभी भी पूरा कर सकते हैं।

● घर के मेहनत वाले काम खुद करें। जैसे- सफाई करना, कपड़े धोना, पोछा लगाना, बागबानी करना आदि।

●जिस व्यायाम को करने में आपको आनंद आये वह करें। बोरिंग व्यायाम से बचें।

● तैरना, डांसिंग, खेलना, बच्चों के साथ मस्ती करना या खेलना भी बहुत अच्छे और लाभदायक व्यायाम है।

तो आज से चलिये… क्योंकि चलना ही ज़िन्दगी है…एक सेहतमंद ज़िन्दगी जिसके आप हक़दार हैं।


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सफेद रंग चाहे स्वच्छता एवं शांति का प्रतीक हो, लेकिन कुछ सफेद पदार्थ आपकी वेईंग मशीन में, आपकी ईसीजी में, आपके बीपी मॉनिटर में और लगभग सभी जाँच रिपोर्टों में  अशांति ला सकते है। इसलिए आप सफेद रंग की जगह ब्राउन रंग के कुछ खाद्य पदार्थों का उपयोग करें। यह ब्राउन रंग के खाद्य पदार्थ आपके स्वास्थ्य को निखारने में काफी मददगार साबित होंगे।

किसी भी खाद्य पदार्थ को उसके प्राकृतिक रंग से नयन भावन बनाने के लिये कुछ प्रक्रियाओं से गुजा़रा जाता है जिसे हम प्रोसेसिंग या रिफाइनिंग कहते हैं। इस प्रोसेसिंग से खाद्य पदार्थ के कई गुण नष्ट हो जाते हैं।

शक्कर (शुगर  या चीनी)

शक्कर एक दानेदार खूबसूरत सफेद रंग का पदार्थ है, जिसे आजकल मिठास का पर्याय माना जाने लगा है। सभी मीठे पदार्थों की जगह यह शक्कर ले चुकी है। गुड़, मिश्री, पिण्ड खजूर को लोग अब पुराने लोगों की चीज़ें बताकर मुँह फेर लेते हैं। आइये जानते हैं इस खुशी के वक़्त बंटने वाली मिठाई के बारे में कुछ अनजाने पहलू –

डॉ. विलियम मार्टिन ने 1957 में शक्कर को ज़हर बताया था। शायद वह हज़रत अली के कथन ‘‘हर मीठी चीज़ ज़हर है सिवाय शहद के’’ का ही समर्थन कर रहे थे। डॉ. विलियम ने यह ऐसे ही नहीं कहा था, उन्होंने यह फ्रैंच वैज्ञानिक मेगेन्डी के प्रयोगों के निष्कर्ष के बाद कहा था। 1816 में मेगेन्डी ने 10 कुत्तों पर परीक्षण किया। उन्होंने उन कुत्तों को 8 दिन तक केवल शक्कर और पानी ही दिया। परिणामतः 8वें दिन सभी कुत्ते मर गये।

सर फ्रेड्रिक बेंटिंग (1929) जो कि इंसुलिन के सह-खोजकर्ता हैं, ने देखा कि पनामा में जो किसान रिफाइन्ड शक्कर का उपयोग करते थे उनमें मधुमेह रोग आम था। जबकि जो लोग गन्ने खाते थे चाहे वह ज़्यादा मात्रा में रोज़ाना खाते थे उनमें मधुमेह बहुत ही दुर्लभ थी।

शक्कर  क्यों घातक है?

आहार विशेषज्ञ शक्कर को एम्पटी या नैकेड कैलोरी कहते हैं। इसमें कोई प्राकृतिक खनिज या पोषक पदार्थ नहीं होते। जब प्राकृतिक खनिज या पोषक पदार्थ अनुपस्थित होते हैं तो इस शक्कर (कार्बोहाइड्रेट) का पाचन पूर्ण या ठीक से नहीं हो पाता। ये अधपचे कार्बोहाइड्रेट कुछ विषैले तत्वों का निर्माण करते हैं जैसे कि पायरूविक एसिड और विकृत शर्करा, जिसमें कि छः की जगह 5 कार्बन एटम होते हैं।

इसमें से पायरूविक एसिड मस्तिष्क और तंत्रिकाओं में जमा हो जाता है और विकृत शर्करा हमारे शरीर में। इस कारण से हमारा मस्तिष्क क्षतिग्रस्त हो जाता है और विकृत शर्करा के जमने से हमारे शरीर की अन्य कोशिकाओं को ऑक्सीजन नहीं मिलती और उनका क्षय होता चला जाता है। इससे हमारा शरीर जल्दी बूढ़ा हो जाता है और कई अन्य अंग क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।

जब हम लगातार शक्कर का सेवन करते रहते हैं तो हमारे रक्त में अधिक एसिड का निर्माण होता जाता है। इस अधिक मात्रा में बने एसिड से बचाने के लिये रक्त, हड्डियों और दांतों से कैल्शियम को निकालकर खुद में मिलाता है जिससे हड्डियाँ कमज़ोर हो जाती हैं और दाँत सड़ने लगते हैं। अचानक से शक्कर के रूप में मिली कैलोरी की वजह से हमारे शरीर में एक कैलोरी विस्फोट होता है। इस विस्फोट से हमारे शरीर के अंग-प्रत्यंग हक्के-बक्के रह जाते हैं। ऐसे में इस अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट को हमारा लिवर संग्रहित कर लेता है। जब बार-बार ऐसा होता है तो यह अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट वसा के रूप में लिवर पर जमा हो जाता है जिसे चिकित्सकीय भाषा में ‘फैटी लीवर’ कहते हैं। इससे लीवर का कार्य प्रभावित होता है और शरीर कई रोगों से ग्रस्त होने लगता है।

इसके लक्षणों में सबसे पहले पेट का फूलना, पेट में सीधे हाथ की तरफ दर्द होना और भारी लगना, जी मिचलाना या उल्टी जैसा लगना, एसिडिटी आदि हैं।

शक्कर रिफाइन्ड कैसे की जाती है?

असल में शक्कर का रंग पीला या भूरा होता है। इसे सफेद या चमकदार बनाने के लिये गन्ने के रस में उबालते समय सल्फर डाइआक्साइड मिलाया जाता है जिससे कि वह सुंदर चमचमाते सफेद दानों में परिवर्तित हो जाती है। यही प्रक्रिया इसे सफेद ज़हर बना देती है।

हम सबसे ज़्यादा शक्कर कैसे खाते हैं?

चाय में, मिठाई में, कोल्डड्रिंक्स में (10 ग्राम प्रति 100 मि.ली. में), चॉकलेट में, आईसक्रीम में, इसे हम रोज़ाना खाते हैं।

शक्कर के हानिकारक प्रभाव

 

  • मधुमेह (डायबिटीज़)
  • हृदय रोग
  • जोड़ों की समस्या
  • दांतों की सड़न
  • लकवा
  • मस्तिष्क क्षय
  • फैटी लिवर
  • कैंसर
  • चर्म रोग
  • मोटापा
  • आई.बी.एम.
  • यौन समस्याएँ आदि

 

शक्कर या शुगर के विकल्प

खजूर, गुड़, शहद, फल, स्टेविया।


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अक्सर लोग और मेरे साथी मुझसे कहते हैं कि जो नजर आ रहा है इसे तो हम मान लेते हैं, लेकिन जो हमे दिखता नहीं उस पर यकीन कैसे करें? कैसे यकीन करें कि ईश्वर है, फरिश्ते या देवदूत हैं, स्वर्ग और नर्क है? तो मैं उनको एक उदाहरण से समझाता हूं कि यदि गर्भ में पल रहे शिशु से कोई यह कहे कि तुम्हारा यहां तुम्हारी मां के पेट में रहने का एक वक्त या समय मुकर्रर है, उसके बाद तुम्हें संसार में जाना है, वह संसार तुम्हारी मां के पेट से अरबो गुना बड़ा होगा, वहां चांद है, सूरज है, तारे हैं, पेड़ हैं,पौधे हैं, जंगल है, नदियां हैं, समुद्र है, पक्षी हैं, चौपाये हैं। इस संसार में जब तुम जाओगे तो तुम्हें वहां अपनी मां की गर्भनाल से मिलने वाला भोजन नहीं मिलेगा बल्कि वहां तो तुम स्वयं तरह-तरह के भोजन अपने मुंह से ही खाओगे, वहां तुम चलोगे फिरोगे, सांस लोगे। हां, यह सुनकर उसका छोटा सा मस्तिष्क कहेगा यह सब कैसे संभव है? मैं तो अपनी मां के पेट के अलावा कहीं और जी ही नहीं पाऊंगा, कहीं और जीवन मुमकिन ही नहीं है!

हम उसे कितना ही समझाएं लेकिन उसकी अक्ल, उसका मस्तिष्क उसे यह मानने ही नहीं देगा, लेकिन जैसे ही वह पैदा होगा सारी की सारी हकीकत उसके सामने आ जाएगी। उसकी मां के पेट से अरबो गुना बड़ा संसार उसके सामने होगा वह खाएगा, पिएगा, देखेगा, सांस लेगा, तब सत्य का दर्शन उसे हो जाएगा।

ऐसा ही हाल हम मनुष्यों का है कि हम स्वर्ग और नर्क को नहीं मानते, हम ईश्वर के अस्तित्व ईश्वर को देवदूत या फरिश्तों पर विश्वास नहीं करते लेकिन मृत्यु के पश्चात उस लोक में आंखें खुलने पर सत्य हमारे सामने होगा उसके बाद हमारे धार्मिक बन जाने का कोई लाभ नहीं है…


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1. जल्दी उठें। जब आप जल्दी उठते हैं तो आपके अंदर एक ऊर्जा का संचार होता है, आपका मेटाबोलिज्म ठीक होता है, इम्युनिटी बढ़ती है, आप खुश रहते हैं, आप अपने दिन के सभी काम समय पर पूरा कर लेते हैं। यह सभी बातें आपको स्वस्थ और फिट बनाती है।

2. सुबह उठकर एक ग्लास गर्म पानी मे एक नीबू का रस और एक चम्मच शहद मिलाकर पियें। यह बॉडी डिटॉक्स करता है और साथ ही।मेटाबोलिज्म को बढ़ाता है। इससे फैट सेल्स घुलने लगती हैं और वज़न कम हो जाता है।

3. आधा घंटा धूप में बैठें। धूप से आपको विटामिन डी मिलेगा, इसकी गर्मी से फैट सेल्स घुलने लगती हैं और मेटाबोलिज्म बढ़ता है जिस3 मोटापा दूर होबे लगता है। इससे आपका तनाव भी दूर होता है और आप दिनभर खुश रहते हैं।

4. आधा घंटा वॉक। चलने से कप कैलोरी बर्न करते हैं और इससे आपके सभी जोड़ स्वस्थ रहते हैं, शुगर और बीपी नियंत्रित रहते हैं, डाइजेशन ठीक रहता है, कब्ज़ नही होता कर आप दिनभर तरोताज़ा रहते हैं।

5. नाश्ता ज़रूर करें। नाश्ता छोड़ने की गलती कभी न करें। आप मोटे खाने से नहीं गलत खाने और गलत समय पर खाने से होते हैं। नाश्ता करने का सबसे अच्छा समय सुबह 7 से 9 के बीच है। नाश्ते में कार्बोहाइड्रेट और फैट की जगह प्रोटीन ज्यादा मात्रा में लें जैसे अंडा, चिकन, डॉयफ्रूट्स, ओएट्स। फलों को भी नाश्ते में शामिल करें। शुगर को अवॉइड करें दिन भर।


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मूलतः मनुष्य की दो मानसिकताएं होती है-एक व्यक्तिगत और दूसरी सामुहिक । व्यक्तिगत हम एक अलग इंसान हैं और सामुहिक एक बिल्कुल अलग इंसान। हम व्यक्तिगत रूप से हिंसा के विरोधी हो सकते हैं लेकिन भीड़ के साथ हम हिंसा पर उतारू और क्रोध तथा बदले से भरे व्यक्ति बन जाते हैं। एकांत में आप एक ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं जो कि किसी भी धर्म से घृणा नहीं करता लेकिन भीड़ में आप दूसरे धर्म वाले व्यक्ति को मौत के घाट उतार सकते हैं चाहे आप उसे जानते भी न हो, चाहे उसने आपका कुछ न बिगाड़ा हो, चाहे वह व्यक्ति निर्दोष हो, चाहे वह व्यक्ति किसी षडयंत्र के द्वारा फंसाया गया हो, लेकिन आप उस पर भीड़ बनकर टूट पड़ते हैं, क्यों ? क्योंकि भीड़ में आप एक अलग इंसान बन गए हैं, एक अलग रूप आपने ग्रहण कर लिया है, एक नये रोल में आप आ गए हैं, आप अपनी पहचान भूल गए हैं।

हमारे देश में आजकल भीड़ के न्याय और ‘आन स्पॉट सजा’ का बोलबाला है। दिल्ली में एक युवक की भीड़ ने पीट-पीट कर इसलिये हत्या कर दी कि वह खुले में मूत्र कर रहा था, राजस्थान में एक व्यक्ति को इसलिये मार दिया गया कि वह गाय खरीदकर ले जा रहा था जबकि उसका उद्देश्य उसे काटना नहीं पालना था, झारखंड में छः युवकों को भीड़ ने बच्चा चोरी के शक में पीट-पीटकर मार डाला। यूपी में एक व्यक्ति को भीड़ गोकशी की अफवाह के कारण निर्दयता से मार डालती है। महाराष्ट्र के धुले में भीड़ ने 5 लोगों को पीट पीटकर इसीलिए मार दिया क्योंकि वे एक छोटी बच्ची से गांव के हाट में किसी का पता पूछ रहे थे और लोगों को लगा कि वे बच्चों को चोरी करने वाली गैंग है। यह भीड़ कभी भी उत्पन्न हो सकती है और किसी के भी खिलाफ हो सकती है। हो सकता है यह भीड़, हिन्दुओं की मुसलमान के खिलाफ हो, या मुसलमानों की हिन्दुओं के खिलाफ हो, या दलित की सवर्णों के खिलाफ,या सवर्णों की दलितों के खिलाफ, या यह भीड अमीर की गरीब के खिलाफ, या गरीब की अमीर के खिलाफ, या यह भीड़ डॉक्टरों के खिलाफ मरीज की हो, या यह भीड़ पुलिस के खिलाफ भी हो सकती है, या नेताओं के खिलाफ, या बोस के खिलाफ, या महिलाओं के खिलाफ, या पुरूषों के खिलाफ, या दूसरी भाषा बोलने वाले की हो सकती है, या यह भीड़ एक राज्य के खिलाफ दूसरे राज्य वालों की हो सकती है, या एक गांव या शहर वालों की दूसरे गांव या शहर वालों के खिलाफ हो सकती है। भीड़ के समर्थकों के खिलाफ भी कोई अन्य या नई भीड़ खड़ी होकर उसको वही सजा देकर मौत के घाट उतार सकती है। यह केवल अल्पसंख्यक के खिलाफ ही हो ऐसे किसी सिद्धान्त पर ये नहीं चलती। और हमारा देश तो ऐसा निराला देश है कि आप एक पल में बहुसंख्यक हैं तो दूसरे ही पल अल्पसंख्यक बन जाते हैं। आपकी भाषा, विचारधारा, क्षेत्र, धर्म, जाति, लिंग और आयु किसी भी समय आपको अल्पसंख्यक बना सकती है। आप एक मोहल्ले में बहुसंख्यक हैं तो दूसरे मोहल्ले में अल्पसंख्यक, आप एक गांव में बहुसंख्यक है तो दूसरे गांव में अल्पसंख्यक, आप एक शहर में बहुसंख्यक हैं तो दूसरे शहर में अल्पसंख्यक, आप एक राज्य में बहुसंख्यक है तो दूसरे राज्य में अल्पसंख्यक।

हमारे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों को भीड़ बहुत पंसद होती है क्योंकि ये उनकी उर्जा है और थोक में वोट करती है। भीड़, असल में डरी हुई होती है और अपने व्यक्तिगत मसलों को भूलकर सामुहिक मुद्दों पर वोट करती है। लेकिन दोस्तों स्वार्थी नेता ज्यादा महत्वपूर्ण वोट बैंक के आगे कम महत्वपूर्ण वोटर्स के समुह को बर्बाद कर देंगे। हो सकता है आप अभी महत्वपूर्ण वोटर हो लेकिन आपका धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आयु, लिंग और विचारधारा आपको किसी भी वक्त कम महत्वपूर्ण वोटर या अल्पसंख्यक में परिवर्तित कर देगी।

भीड़ न्यायाधीश तब बनती है जब उसे पूरा यकिन हो कि उसे कोई सजा नहीं मिलेगी तथा इस भीड़ में भीड़ वालों की कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं होगी। जब भीड़ एक समुह के रूप में अपना नामकरण कर लेती है तो फिर व्यक्तिगत पहचान गुम हो जाती है और वे बैखोफ होकर क्रूरता करते हैं। भीड़ न्यायाधीश इसलिये भी बन सकती है कि उसका न्याय व्यवस्था पर भरोसा ही न हो। उसे लगता ही नहीं कि इस तथाकथित पकड़े गए मुजरिम को अदालत या व्यवस्था कोई सज़ा देगी। तो भीड के उत्पाती होने के दो कारण है-न्याय का भय न होना तथा दूसरा न्याय की उम्मीद ही न होना।

आजकल मोबाईल केमरों से कुछ भीड़ वालों की पहचान होने लगी है इसलिए कुछ लोग डरने लगे हैं। यदि ऐसा हुआ कि सेटेलाइट केमरे और विकसित होकर भीड़ में एक-एक व्यक्ति की पहचान कर ले तो शायद भीड़ में कुछ डर पैदा हो, लेकिन फिर भी न्याय से डर वांछित है। वर्ना न्याय के बिना साक्ष्य का कोई औचित्य नहीं है उल्टा ये तो और ज्यादा नाउम्मीदी पैदा करेगा। भीड़ तब तक न्यायाधीश बनती रहेगी जब तक कि न्यायालय हर एक के साथ पूरा पूरा न्याय न करने लगे। न्याय होता दिखना न्याय का एक प्रमुख अंग है। न्याय का एक मात्र उद्देश्य भावी मुज़रिम को भावी ज़ुर्म करने से रोकना है…न्याय का भरोसा और डर दिखा कर।

इंसान मूल रूप से एक हिंसक पशु है, वह हिंसा करना चाहता है, वह कभी हिन्दू है तो मुसलमान से लड़ेगा, मुसलमान है तो हिन्दू से लड़ेगा, नहीं तो अपने ही मज़हब वालों से लड़ेगा, या अपने मज़हब की दूसरी जाति वालों से लड़ेगा, या अपनी ही जाती वालों से लड़ेगा, अगर इनसे लड़ने की कोई वजह नहीं मिली तो यह अपने परिवार वालो से लड़ेगा और परिवार में भी कोई लड़ने वाला नहीं मिला तो यह हिंसा का पुजारी खुद से ही लड़ने लगेगा…मरते दम तक यह हिंसा को पालता और पोस्ता रहेगा और भीड़ में इसकी हिंसा का ब्रीडिंग पीरियड शुरू हो जाता है जिसमें यह उत्पात, उन्माद और हाहाकार मचा देता है, कत्ल करता है, लूट पाट मचाता है, आगजनी करता है, तोड़ फोड़ करता है… क्यों? क्योंकि यह स्वभाव से हिंसक है। इसकी इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए ही कई धर्म आए, हमारे ह देश में अहिंसा का उपदेश देने के लिए बुद्ध और महावीर आये, कई कानून बने, जिससे यह वहशीपन रुकता तो है लेकिन मूल प्रवत्ति कब समाप्त होती है? हम खुद से पूछे क्या हम भी एक हिंसक पशु है?

पुनश्च: मेरी तीन साल की बेटी बाहर जब भी कोई गाड़ी की आवाज आती है तो दरवाजे पर दौड़ पड़ती है कि शायद मैं यानि उसका पिता आगया हूँ, वह उम्मीद लगाती है कि मैं आकर उसे लाड़ करूँगा, उसे घुमाउँगा या उसके लिए कोई खाने की चीज लाया हूंगा। मेरा पांच साल का बेटा मुझसे उम्मीद रखता है कि मैं उसकी सारी ज़िद पूरी करदुंगा उसे अपने पिता पर अपनी मासूमियत के कारण इतना यकीन है कि मैं उसके लिए आसमान से चाँद तोड़कर भी ला सकता हूँ। मेरी पत्नी मुझसे उम्मीद लगाए है कि हमारे परिवार में दुनिया की सारी खुशियाँ होंगी गम का कोई नाम न होगा। मेरी माँ को उम्मीद है कि मैं उसके बुढ़ापे का सहारा बनूँगा और उसका नाम रोशन करूँगा। मेरे भाई बहन को उम्मीद है कि मैं उनके हर अच्छे बुरे वक्त में साथ खड़ा रहूंगा…लेकिन एक दिन रोड़ पर मेरी गाड़ी से किसी को थोड़ी सी चोट लग जाती है। वह घटना जिस जगह होती है वह उसी मामूली से चोटिल हुए व्यक्ति का एरिया है। उसके सब परिचित आकर मेरी कार को घेर लेते हैं। कुछ कहा सुनी होती है और फिर मुझे भीड़ निर्दयता पूर्वक मार डालती है…

अब क्या होगा??? मेरी बच्ची तो अब भी आस लगाएगी और बेटा भी…क्योंकि उन्हें तो बरसो तक यकीन ही नहीं होगा कि उनके पिता नहीं रहे या उन्हें बहलाया जाएगा कि बेटा पापा काम से बाहर गए हैं। बाकि सब लोगों के सपने और अरमान टूट जाएंगे…ज़िन्दगी उलट पलट जाएगी…खुशियों को ग्रहण लग जायेगा। एक ऐसा ग्रहण जो कभी नही हटेगा। मेरे साथ हो, आपके साथ हो या किसी और के साथ…लेकिन सबके साथ होगा यही…दुःख, दर्द, सदमा, बीख़राव, उजाड़…।

जब हम भीड़ बनकर किसी को मारेंगे तो उस एक के साथ कई लोग जीते जी मरेंगे या गम में मर जाएंगे। किसी मासूम और बेगुनाह को न मारे…सोचे एक बार उसके बारे में, उसके परिवार के बारे में। भीड़ हो या आतंकवाद किसी का भी हिस्सा न बने…क्योंकि यह आपको उनका कातिल बना देंगे जिन्होंने आपका कुछ नहीं बिगाड़ा। रुके, सोचे, समझे…और कातिल बनने से खुद को रोक लें। याद रखें हज़ारों की भीड़ जब एक व्यक्ति को मारती है तो मरता तो एक आदमी ही है लेकिन उस वक़्त हज़ारों नए हत्यारे पैदा हो जाते हैं।


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यक़ीनन हम डॉक्टरो ने अपना सम्मान पिछली सदियो के मुक़ाबले गंवाया है, हम बदनाम हुए है, लोगों के दिलों में हमारे लिए गुस्सा है, अब हम फिल्मों और सीरिअल्स में विलेन के किरदार में दिखाई देने लगे हैं, अब हमें डॉक्टर्स डे पर बधाई सन्देश कम ही मिलते हैं, अब हम लोगों की नज़रो में सेवक नहीं व्यापारी बन गए है, अब लोग हमारे पास आने में सुकून नहीं खौफ महसूस करते हैं, अब डॉक्टरों के साथ होने वाली अनहोनी और दुर्घटना को लोग उसके पाप का बदला कहकर मुंह मोड़ लेते हैं…. आदि ,आदि।

आओ प्रण ले कि आज से हम फिर से मानवता के सेवक बनेंगे, अपने सम्मान को पाने के लिए फिर प्रयास करेंगे।

कुछ प्रण ले:-
1.रोगी को रोगी समझेंगे ग्राहक नहीं।
2.रोगी का हित सर्वोपरि रखेंगे।
3.कमिशन खोरी में नहीं उलझेंगे।
4.रोगी को बिना डराये धमकाए इलाज़ करेंगे।
5.उसे हम सलाह या कंसल्टेशन देने के लिए है, किसी और डॉ के पास जाने से रोकने के लिए नहीं, अगर हमसे ज्यादा अच्छे से उसकी जान की कोई और डॉक्टर हिफ़ाज़त कर सकता है तो हम उसे वहाँ रेफेर करेंगे चाहे वह किसी भी पैथी का डॉ हो।
6.समाज से कटे हुए या सताये हुए या गरीब मरीज़ों का हम कम पैसोे में या बिना फीस के इलाज़ करेंगे।
7. अपने रोगियों से पूछ कर उनके फेवरेट डॉ के 3 गुण इसमें और जोड़ ले…

तो आओ हम डॉक्टर फिर से मानवता के सच्चे सेवक बने। और देखिये ना डॉक्टर का लैटिन भाषा में अर्थ शिक्षक होता है तो क्यों न हम इस नाम को साकार करे, मानवता को शिक्षित करें, उसे पढ़ाये,उसे समझाऍ की उसका स्वास्थ कितना क़ीमती और महत्वपूर्ण है उसके लिए भी आपकी सेवाओं के ध्येय और सफलता के लिये भी।

आओ सच्चे अर्थों मे डॉक्टर्स डे मनाये, अपने रोगियो के साथ,अपने रोगियों के लिए, उनके मासूम दिलो में अपने सम्मान को फिर जीवित करने के लिए…क्योंकि हमारे अलावा यह काम कोई और नही कर सकता।


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मेरे पास एक ग्रामीण रोगी आते हैं। वे बहुत ही ओजपूर्ण और सभ्य हैं। मुझे उनसे बहुत लगाव है और मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ। वे जब भी आते हैं क्लीनिक, तो मैं उनसे कम से कम 10 मिनट तक तो बात करता ही हूँ, कुछ ज़िन्दगी के सबक पाने के लिए। उन्होंने मुझे एक बार बताया था कि डॉ साहब मेरा पोता एमबीए करके एक नौकरी करने लगा 25 से 30 हज़ार रुपये महीने की। वह दीपावली पर अपने लिए एक पेंट खरीदकर लाया और सबको खुशी खुशी बता रहा था कि यह 5500 रुपये कीमत की किसी बहुत बड़ी कंपनी की है। मैंने पूछा कि यह इतनी महंगी क्यों हैं बेटा? उसने जवाब दिया कि दादा जी इसमें शल नहीं पड़ते…रिंकल फ्री कुछ बता रहा था वह। मैंने फिर उससे पूछा अच्छा बेटा तुम इसे साल भर में कितनी बार पहनोगे? उसने कहा 12 से 15 बार तो पहनूंगा ही। मैंने फिर कहा कि बेटा अगर मान लिया कि 1000 वाली शल पड़ने वाली पेंट तुम खरीदते और उसे 15 बार 5 रुपये लागत की इस्तरी (प्रेस) करनी पड़ती तो खर्च आता 75 रुपये। तुमने 75 रुपये बचाने के लिए 4500 रुपये ज्यादा खर्च कर दिये। इतने में तो मेरे बेटे 5 और जीन्स आ जाती, जिन्हें तुम ज्यादा बार और ज्यादा समय तक पहन सकते थे। उन्होंने मुझे आगे बताया कि डॉक्टर साहब 150 रुपये की धोती, 250 रुपये का कमीज़ (और 150 रुपये मेरे गांव का टेलर मुझसे सिलाई लेता है) ऐसे में 550 में मेरी पूरी ड्रेस तैयार। सफेद कपड़े पहनता हूँ इसलिए ज्यादा कपड़े भी नहीं लगते। कुल 8 जोड़ी कपड़े हैं। मतलब मेरे पोते की एक पेंट से भी कम पैसे में मेरे 8 जोड़ी कपड़े और वो भी साल-दो साल आराम से चल जाते हैं।

उपरोक्त उदाहरण हमें बता रहा है कि मैं और आप आधुनिक बनने के लिए कितना बेवजह खर्च कर रहे हैं। मूर्खतापूर्ण। ज़रूरत से कहीं कहीं ज्यादा। ब्रांड के चक्कर में हम घनचक्कर हुए जा रहे हैं। क्या शहर और क्या गांव, क्या बच्चे और क्या बूढ़े, क्या पुरूष और क्या स्त्री…सब के सब दिन रात कमा कमाकर इन ब्रांड को देकर आ जाते हैं। खुद को गरीब और इन्हें अमीर बनाकर। मुझे मेरे दोस्त के जूतों में अब तक समझ नहीं आया कि वे क्यों 39000 रुपये कीमत के थे। मुझे नहीं समझ आया कि क्यों मेरा एक परिचित ज़रा में टूट कर बिखर जाने वाले चश्में पर 90000 रुपये खर्च कर देता है! लाखों की घड़ियां, पर्स, कोट पेंट ओह हो…।

हम सब थोड़ासा रुके, सोचे और समझे कि यह मूर्खता क्यों? पढ़ लिखकर हम इन ब्रांड के दीवाने क्यों बन गए? जबकि अनपढ़ लोग आराम से कम कीमत वाले कपड़ों और जूतों में मस्तमौला जीवन बिता रहे हैं। दिमाग से दिवालिया इन सेलेब्रिटीज़ की इतनी भेड़ जैसी मूर्खतापूर्ण नकल क्यों? अमूल्य समय और मेहनत लगाकर कमाया गया यह धन हम क्यों लूटा रहे हैं? आखिर क्यों एक रुपये की वस्तु को 100 रुपये में खरीद कर इतरा रहे हैं? क्यों?क्यों? क्योंकि हम बड़े ब्रान्ड्स द्वारा नियंत्रित मस्तिष्क वाले व्यक्ति बन चुके हैं। हमारी सोच, पसंद और विचारधारा अब किसी और के द्वारा निर्धारित कर दी गई है।

पुनश्च: मुझे पता चला कि एक इंटरनेशनल ब्रांड बांग्लादेश में 13 रुपये की लागत में अंडरवियर बनवाकर दुनिया में 300 से 500 रुपये में बेचती है सिर्फ एक फुटबॉल सितारे से एड करवाकर। यह लूट है और साथ ही अन्याय और बेईमानी भी। लेकिन यह हम पढ़े लिखे और सभ्य लोगों की स्वेच्छिक मूर्खतापूर्ण खरीदारी है इसलिए उस कंपनी पर कोई केस भी नहीं लग सकता।


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हमारे घर के पास, सड़क के किनारे, बगीचे में या फिर किसी बेकार पड़ी जमीन पर कई पौधे उगे होते हैं. ये पेड़-पौधे आश्चर्यजनक रूप से हमारे कई जटिल रोगों को ठीक कर सकते हैं. अगर हमें इनकी उपयोगिता और इनकी अहमियत मालूम हो तो हम इन्हें सहेज कर इनकी मदद से कई रोगों को खत्म कर सकते हैं

1-पीपल

हमारे देशवासियो्रं के लिए पीपल के पेड़ की खास अहमियत है. यह हिंदू धर्म में सभी वृक्षों में सर्वोपरि है. आयुर्वेद में भी इसका बहुत महत्व है. इसके प्रमुख उपयोग हैः

-इसके पत्तों का काढ़ा या चाय बनाकर प्रति दिन पीने से हृदय रोगों में बहुत लाभ होता है. दिल की कमजोरी दूर होती है, कैल्शियम प्लैक हटते हैं, इसलिए वॉल्व भी ठीक होते हैं. इससे शरीर की सूजन, पैरों की सूजन, वेरिकोस वैन में भी बहुत लाभ होता है.

-इसकी छाल को पानी में उबालकर काढ़ा बनाकर पीने से गठिया में बहुत लाभ होता है क्योंकि यह किडनी की क्रियाविधि को सुधारकर यूरिक एसिड आदि घातक तत्वों को शरीर से बाहर निकाल देता है.

-इसकी छाल से तैयार काढ़ा किडनी के रोगों में भी लाभदायक है. चर्म रोगों में भी यह काढ़ा बहुत फायदेमंद साबित होता है.

2 पपीता

पपीता के पत्तों की आज के समय में बहुत डिमांड है. हर कंपनी इसके पत्तों के रस निकालकर बेच रही है क्योंकि यह प्लेटलेट्स की संख्या को बड़ी तेजी से बढ़ाता है, इसलिए यह जानलेवा डेंगू में बहुत उपयोगी है. इसके पत्तों के रस को डेंगू के रोगी को पिलाने से बहुत लाभ होता है.

-पपीता का फल खाने से पाचन संबंधी समस्या खत्म होती है. कब्ज में यह बहुत लाभ करता है.

-पपीता के सूखे बीज आंतों से विष को निकालते हैं और यह अपेंडिसाइटिस में बेहद उपयोगी है.

-कच्चे फलों से निकाला गया लेटेक्स या रस ट्यूमर और कैंसर में लाभदायक है.

3 अर्क

अर्क या अकव्वा/आंकड़ा बेहद ही उपयोगी औषधि है. आयुर्वेद में इसे जड़ी-बूटियों का पारद कहा जाता है.

-इसकी जड़ की छाल ट्यूमर, सिस्ट, एब्सेस और सभी घावों में बेहद लाभ पहुंचाती है. इसे केवल एक चुटकी मात्रा में शहद के साथ लिया जाता है.

– इसके पत्तों को गरम करके एड़ी पर बांधने से एडिय़ों का दर्द ठीक हो जाता है. इसके पत्तों से निकलने वाले दूध को चुभे हुए कांटे या अन्य कोई वस्तु जैसे कांच आदि पर लगाने से वह स्वतः बाहर निकल आती है.

-इसके फूल की पंखुडिय़ों को निकालकर बचे हुए भाग को पान में रखकर चूसने से पीलिया और अन्य यकृत रोगों में बहुत आराम मिलता है.

4 अनार

अनार स्वादिष्ट फल है. इसे विशेषकर खून की कमी के रोगी को खाने की सलाह दी जाती है.

-इसके फल की छाल खूनी बवासीर या अन्य रक्त बहने वाले रोगों में लाभ पहुंचाती है.

-इसके पत्तों के रस को हथेली और तलवों की जलन में लगाने से बहुत लाभ होता है.

-टायफॉइड और डेंगू में उसकी पत्तियों का काढ़ा बहुत लाभदायक होता है.

5 पुनर्नवा

इस हर्ब का नाम ही इसका महत्व बताता है कि यह शरीर को फिर से नया कर देती है. इससे चूर्ण या काढ़ा बनाते हैं.

-किडनी के रोगों की यह बेजोड़ दवाई है.

-पथरी को निकालने में यह मददगार है.

-यकृत/जिगर/लिवर के सभी रोगों में बेहद असरकारक है.

-एनीमिया में भी यह बहुत असरकारी है.

6 कचनार

यह अक्सर बगीचों में लगा होता है. यह बेहद खूबसूरत पौधा बहुत काम का है. इसकी पत्तियों का आकार थायरॉइड से बहुत मिलता है इसलिए थायरॉइड की समस्या में यह बेहद उपयोगी औषधि है और थायरॉइड के लिए बनाई जाने वाली सभी दवाओं में इसे डाला जाता है. इसकी पत्ती और छाल विशेष उपयोगी होती है जिनका चूर्ण या काढ़ा प्रयोग किया जाता है. विभिन्न प्रकार के ट्यूमर्स में भी इसकी छाल और पत्तियों का चूर्ण लाभदायक है.

7 भुई आंवला

इसके फल आंवले के आकार के होते हैं और यह एक छोटा पौधा होता है इसलिए इसे भुई आंवला कहा जाता है. यह बगीचों में या सड़क के किनारे नमी वाली जगह पर पाया जाता है.

-यकृत के लिए यह अमृत है. इसके पौधे को साफ करके ऐसे ही खाया जा सकता है.

-इसे खाने के कुछ ही देर बाद व्यक्ति को भूख लगने लगती है, इसलिए भूख न लगने की समस्या में यह बहुत लाभदायक है.

-पेशाब के इंफेक्शन में यह बहुत लाभदायक है.

-वायरल इन्फेक्शन में यह एक बेजोड़ दवाई है.

-इम्युनिटी बढ़ाने में यह बेहद मददगार है.

8 बेल

बिल्व या बेल शिवजी का प्रिय फल है और इसे हिंदू धर्मावलंबी पूजा में प्रयोग भी करते हैं. पैगंबर मुहम्मद ने इसे जन्नत का दरख्त कहकर इसकी उपयोगिता में चार चांद लगा दिए हैं.

-बवासीर में इसकी पत्तियों का चूर्ण अमृत है.

-इसके पके फल का शर्बत पाचनतंत्र के लिए लाभदायक औषधि है.

-इसके फलों का मुरब्बा पेट के लिए बहुत फायदेमंद है.

9 धतूरा

धतूरा वह अमृत है जिसे हम जहर समझकर नजरअंदाज कर देते हैं या डर जाते हैं.

हिंदू धर्म के आराध्य शिवजी का यह बेहद प्रिय है.

-इसकी पत्तियों को पानी मे उबालकर उस पानी से सिर धोने से जुएं नही पड़तीं.

-इसी पानी से दर्द और सूजन वाली जगह पर सिकाई करने से आराम मिलता है.

-इसके पूरे पौधे को लेकर उसे सरसों के तेल में पका लें और उस तेल से जोड़ों की मालिश करने से जोड़ों का दर्द कम होता है.

10 अपामार्ग

मेरी यह सबसे पसंदीदा दवाई है. मुझे इससे प्रेम है क्योंकि यह मानवता के लिए ईश्वर का अद्भुत वरदान है. इसके अनेक चिकित्सा उपयोग हैं.

-बिच्छू के काट लेने पर दंश स्थान पर इसकी पत्तियों का रस लगाकर इसकी जड़ को घिसने से कुछ ही सेकंड में आराम मिल जाता है.

-थायरॉइड की समस्या में इसकी पत्तियों का चूर्ण बहुत लाभ पहुंचाता है.

-सैल्युलाइटिस (शोथ) में इसकी पत्तियों का लेप अद्भुत है.

-अस्थमा में इसकी जड़ का चूर्ण सुबह खाली पेट लेने से शानदार परिणाम मिलते हैं.

-जड़ का चूर्ण या काढ़ा पथरी के लिए सटीक दवाई है.

-इसके बीज खूनी बवासीर-माहवारी में अधिक रक्त आने की परम औषधि है.

-इसके बीज की दूध में बनाई खीर खाने से बहुत ज्यादा भूख लगने की समस्या दूर हो जाती है.

-मोटापे में इसकी पत्तियों का चूर्ण बहुत लाभदायक है, विशेष रूप से महिलाओं में.

11 चांगेरी

यह बगीचों में या सड़क के किनारे जहां थोड़ी सी नमी होती है, वहां मिलती है. दिल के आकार की इसकी पत्तियों को आयुर्वेद में बहुत उपयोगी माना गया है.

-इसको घी में पकाकर खाने से गुदा और गर्भाशय के बाहर आने की समस्या में लाभ मिलता है.

-इसी घी को गुदा और योनि में लगाते हैं जिससे प्रोलैप्स की समस्या ठीक होती है.

12 अडूसा

यह भी शानदार औषधीय पौधों में से एक है.

-इसके पत्तों का रस खांसी और दमे में बहुत असरदार है. खांसी या अस्थमा की शायद ही ऐसी कोई आयुर्वेदिक दवाई हो जिसमें इसे न डाला जाता हो.

-इसके पत्तों का रस और चूर्ण खूनी बवासीर की बहुत असरदार दवाई है.

-मासिक धर्म में अधिक रक्त आने पर भी यह बहुत उपयोगी साबित होती है.


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कुछ महीने पहले अचानक मुझे पता चला था कि मैं न्यूरोएंडोक्रिन कैंसर से ग्रस्त हूं। मैंने पहली बार यह शब्द सुना था। खोजने पर मैंने पाया कि इस शब्द पर बहुत ज्यादा शोध नहीं हुए हैं। क्योंकि यह एक दुर्लभ शारीरिक अवस्था का नाम है और इस वजह से इसके उपचार की अनिश्चितता ज्यादा है। अभी तक अपने सफ़र में मैं तेज़-मंद गति से चलता चला जा रहा था … मेरे साथ मेरी योजनाएं, आकांक्षाएं, सपने और मंजिलें थीं। मैं इनमें लीन बढ़ा जा रहा था कि अचानक टीसी ने पीठ पर टैप किया, ’आप का स्टेशन आ रहा है, प्लीज उतर जाएं।’ मेरी समझ में नहीं आया… न न, मेरा स्टेशन अभी नहीं आया है…’ जवाब मिला, ‘अगले किसी भी स्टॉप पर उतरना होगा, आपका गंतव्य आ गया…’ अचानक एहसास हुआ कि आप किसी ढक्कन (कॉर्क) की तरह अनजान सागर में अप्रत्याशित लहरों पर बह रहे हैं। लहरों को क़ाबू करने की ग़लतफ़हमी लिये।

इस हड़बोंग, सहम और डर में घबरा कर मैं अपने बेटे से कहता हूं, ’आज की इस हालत में मैं केवल इतना ही चाहता हूं… मैं इस मानसिक स्थिति को हड़बड़ाहट, डर, बदहवासी की हालत में नहीं जीना चाहता। मुझे किसी भी सूरत में मेरे पैर चाहिए, जिन पर खड़ा होकर अपनी हालत को तटस्थ हो कर जी पाऊं। मैं खड़ा होना चाहता हूं।’

ऐसी मेरी मंशा थी, मेरा इरादा था…

कुछ हफ़्तों के बाद मैं एक अस्पताल में भर्ती हो गया। बेइंतहा दर्द हो रहा है। यह तो मालूम था कि दर्द होगा, लेकिन ऐसा दर्द? अब दर्द की तीव्रता समझ में आ रही है। कुछ भी काम नहीं कर रहा है। न कोई सांत्वना और न कोई दिलासा। पूरी कायनात उस दर्द के पल में सिमट आयी थी। दर्द खुदा से भी बड़ा और विशाल महसूस हुआ।

मैं जिस अस्पताल में भर्ती हूं, उसमें बालकनी भी है। बाहर का नज़ारा दिखता है। कोमा वार्ड ठीक मेरे ऊपर है। सड़क की एक तरफ मेरा अस्पताल है और दूसरी तरफ लॉर्ड्स स्टेडियम है। वहां विवियन रिचर्ड्स का मुस्कुराता पोस्टर है, मेरे बचपन के ख़्वाबों का मक्का। उसे देखने पर पहली नज़र में मुझे कोई एहसास ही नहीं हुआ। मानो वह दुनिया कभी मेरी थी ही नहीं।

मैं दर्द की गिरफ्त में हूं।

और फिर एक दिन यह एहसास हुआ… जैसे मैं किसी ऐसी चीज का हिस्सा नहीं हूं, जो निश्चित होने का दावा करे। न अस्पताल और न स्टेडियम। मेरे अंदर जो शेष था, वह वास्तव में कायनात की असीम शक्ति और बुद्धि का प्रभाव था। मेरे अस्पताल का वहां होना था। मन ने कहा, केवल अनिश्चितता ही निश्चित है।

इस एहसास ने मुझे समर्पण और भरोसे के लिए तैयार किया। अब चाहे जो भी नतीजा हो, यह चाहे जहां ले जाए, आज से आठ महीनों के बाद, या आज से चार महीनों के बाद, या फिर दो साल… चिंता दरकिनार हुई और फिर विलीन होने लगी और फिर मेरे दिमाग से जीने-मरने का हिसाब निकल गया!

पहली बार मुझे शब्द ‘आज़ादी ‘ का एहसास हुआ, सही अर्थ में! एक उपलब्धि का एहसास।

इस कायनात की करनी में मेरा विश्वास ही पूर्ण सत्य बन गया। उसके बाद लगा कि वह विश्वास मेरे हर सेल में पैठ गया। वक़्त ही बताएगा कि वह ठहरता है कि नहीं! फ़िलहाल मैं यही महसूस कर रहा हूं।

इस सफ़र में सारी दुनिया के लोग… सभी, मेरे सेहतमंद होने की दुआ कर रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं, मैं जिन्हें जानता हूं और जिन्हें नहीं जानता, वे सभी अलग-अलग जगहों और टाइम ज़ोन से मेरे लिए प्रार्थना कर रहे हैं। मुझे लगता है कि उनकी प्रार्थनाएं मिल कर एक हो गयी हैं… एक बड़ी शक्ति… तीव्र जीवन धारा बन कर मेरे स्पाइन से मुझमें प्रवेश कर सिर के ऊपर कपाल से अंकुरित हो रही है।

अंकुरित होकर यह कभी कली, कभी पत्ती, कभी टहनी और कभी शाखा बन जाती है… मैं खुश होकर इन्हें देखता हूं। लोगों की सामूहिक प्रार्थना से उपजी हर टहनी, हर पत्ती, हर फूल मुझे एक नयी दुनिया दिखाती है।

एहसास होता है कि ज़रूरी नहीं कि लहरों पर ढक्कन (कॉर्क) का नियंत्रण हो… जैसे आप क़ुदरत के पालने में झूल रहे हों!


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